Tuesday, October 18, 2011

जव़ा-दस्ताने...!!


"भैय्या आगे से spike, मूछ साफ़ और कलम लम्बी रखना..!"

बात उस परिवर्तन की है जीसे रमाकांत की हफ्ते दर हफ्ते बदलती हैएर स्टाइल बरबस ही बया क्र जाती थी | रमाकांत का शरीर अब पकने लगा था, मुछो की रेत जैसे फूटने लगी थी | हालाकी वो बात और थी की (माँ रजनी देवी के स्तोत्र से) रमाकांत चाय बनाने की कला में भले ही पारंगत न हुआ हो पर अब वो इस साल देश की सर्कार चुन ने लायक तो हो ही चला था (१८ वर्ष+) | 
आज फिर सुबह कोलाहल से भरी थी, कॉलेज में १ घंटा शेष था और वीर रस से ओत-प्रोत राज्निदेवी जी अपने प्रयासों के चरम पर , पर लाडले है की सो क्र उठने को तैयार नहीं | अब भला रमाकांत की व्यथा राज्निदेवी कैसे समझती की देर से सो क उठने में और उठ क्र फिर सो जाने में जो आनंद की अनुभूति है वो तो बड़े बड़े साधू-मुनि को भी नसीब न हुई | रमाकांत अब 'रमाकांत' से रैम हो गया था | जहा दोस्तों क जकीरे में, लप्पसी में समय के ठीकाने न थ, वही पढाई के लिए समय निकलना भी एक कला ही रह गई थी |
सुंदर सुंदर युवतियो को देख क्र रमाकांत का दील अक्सर धड़कने लगा था | सौन्दर्य प्रेमी हो चले रमाकांत नैन सुख प्राप्ति का अनुभव करने लगे थर | और इस लेख के दौरान आपको पता चलता उसके पहले रमाकांत हमारी कहानी के इमरान हाश्मी हो चले थे | जनाब ने फ़रमाया भी तो क्या ! इश्क !! विश्वास तो मानीये खबर एक दम पुख्ता है जनाब को अब चाँद भी बड़ा दिख रहा थ और शाखें गुनगुनाती, ठीक वैसे 'जैसा फिल्मो में होता है!' | जासूसी करने पर अब जान पाएँगे की इन दीनो रैम मिया घंटो उलटी किताब ही पद लिया करते है | उंगलिया किताबो में कम और मोबाइल में अधिक रेंगने लगी थी | इस सो काल्लेद प्रेम-नामे से कोई ख्हुश हो न हो एयरटेल कंपनी वालो की ख़ुशी एस.एम.एस के बढ़ते त्रफ्फिक से जरुर नदारद थी | इस विडम्बना पर मेरी रैम ब्रो को यही सलाह रही की :



"जिंदगी के फैसले नहीं करते सिक्के उछल कर...
इश्क का मामला है भाई, जरा देख भाल क्र...!!

ये मोबाइल के दौर के आशिक क्या जाने... (२)
की ख्हतो में रख देते थे कलेजा अपना निकाल कर...!! "
 

कलेंडर छपने वालो से भी आधुनिक आशिकों का बुरा हाल रहा है, फ्रेंडशिप ड, वलेंतिने डे, बिर्थ डे... और न जाने क्या क्या डे, और आलम कुछ यु की यहा तोहफे तो तोहफे फूलो की खुसबू के भी ब्रांड देखे जाते है |
और कुछ ऐसी ही मट्टी पलीती में रैम महोदय भी ध्हस्ते ही चले जा रहे थे | घर पर शीला के जवान होने का किस्सा तो आम था पर अफ़सोस की इस बात का अंदाज़ा नही की उनका रामू इस कदर जवा हो चला था की तोहफों के वज़न के मारे वो सत्ताख्होरी पे आमदा हो गया | गणितीय सूत्र लिखने वाली कलम अब उधारदाताओ के हिसाब में जुटी थी | चौतरफा उधार जुगाड़ की दीवार उठती ही चली जा रही थी |

अब कोई कांच का टुकड़ा टुटा होता तो १ बार तोड़ने वाले को जखम तो देता ही, पर अफ़सोस की उस रोज़ टुटा तो रमाकांत का दील था | एस.एम्.एस प्रेम का नेटवर्क पूरी तरह से ठप हो चूका था | बस वही एक दिन था जब रमाकांत और शराब दोनों की राशिफल में तन्हाई लिखी थी क्युकी फिर उस दिन के बाद बोतल ने कभी अपने आप को तन्हा न पाया | और फिर एक दिन रामकांत शयद इस विस्वास क साथ झूल गया की अगली बार वो अपनी हथेली में एक अतिरिक्त रेखा लेकर पैदा होगा | अतः शायर की बात बड़ी प्रासंगिक जान पडती है की :

" इश्क जिसे कहते है
गज़ब वो खिलौना है...
मिल जाए तो मिट्टी
और खो जाए तो सोना है....!! "

अफ़सोस की आपका लेखक लिहाज़न उम्र इस काबिल नही की इस वाकीये से कुछ समेट कर लिख पाता और अपनी बेवफाई पर क्षमा मांगता हु की आपको इस विस्मयकारी पर्सना पर अकेला ही छोड़े जा रहा हु की क्या मात्र रमाकांत का विवेक ही दोषी है या फिर आधुनिक चलचित्र(चलन) का पैमाना भी..??

प्रियांशु वैद्य .

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