Saturday, March 31, 2012


वो 'नूर' से...... बैठे ज़रा कुछ दूर से थे..
फासला महज़ १ शुरुआत भर था पर
वो अपने अहम् में चूर से थे तो
हम भी अपनी खुदगर्जी में, मशहूर से थे...

कुछ गला साफ़ कर , हर बार १ फुसफुसाहट को हवा के बहाने भेजा करते थे
पर तौबा ए किस्मत हमारी...
वो अपनी झुल्फो में जैसे, पेशे से, मगरूर से थे.

१ उमर गुज़र गई इज़हार की इस रस्म अदाई में
बीत गया वो  रमजान, छूट गए हम..., जो गुरुर में थे...
अब सोचते हैं आखिर..
मुह्हब्बत की ये किस नासूर इभारत के हम सूरूर में थे....!!!

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प्रियांशु वैद्य